भारतीय दर्शन में योग का महत्व
भारतीय धर्म और दर्शन में योग का महत्वपूर्ण स्थान है। भारतीय दर्शन में योग शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थों में हुआ है। योग की सभी दर्शनों में विविध व्याख्या की गई है। आत्मोन्नति के साधन के रूप में योग की महत्ता को वेद, उपनिषद, स्मृति, पुराण में भी स्वीकार किया गया है। मनुष्य का चित या स्थिर होने पर उसे धर्म या दर्शन के तथ्य का सम्पूर्ण ज्ञान हो सकता है। शुद्ध और शांत मन से ही हम गूढ़ सत्यों को प्राप्त कर सकते हैं। योग से शरीर और मन की शुद्धि हो जाती है। इसलिए सभी भारतीय दर्शन अपने-अपने सिद्धांतों की यौगिक रीति से ध्यान, धारणा आदि के द्वारा स्पष्ट अनुभव करने के लिए प्रयास करते हैं। सविकल्प बुद्धि को निर्विकल्प प्रज्ञा में परिणत करने केलिए योग साधना की उपादेयता र्निविवाद रूप से स्वीकृत है। संहिता, आरण्यक और उपनिषद में योग की महत्ता क ा वर्णन है। योग के कई प्रकार हैं। गीता में ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग तथा ध्यानयोग का वर्णन है। इसके अलावा राजयोग एवं हठयोग भी प्रसिद्ध है।
भारतीय दर्शन में योग शब्द की व्याख्या विभिन्न अर्थों में की गई है। आमतौर पर योग शब्द का अर्थ मिलन होता है जो जीवात्मा का परमात्मा से मिलन के लिए प्रयुक्त किया जाता है। योग वह स्थिति है जिसमें योगी दुखों से विचलित नहीं होता। इस स्थिति से बढ़कर अन्य कोई लाभ नहीं मानता और उसमें वह सुख का अनुभव करता है। पातंजलि योग-सूत्र में चार पाद बताए गए हैं। पहला समाधिपाद है जिसमें समाधि के रूप तथा उसकी वृत्तियों का वर्णन किया गया है। दूसरा है साधनपाद जिसमें क्रियायोग, क्लेश, क्लेश दूर करने के साधन, योग के बहिरंगों का वर्णन है। तीसरे को विभूतिपाद के नाम से जाना जाता है जिसमें योग अन्तरंगों का एवं योगशक्ति से उत्पन्न विभूतियों का तथा कैवल्य आदि का निरूपण है।
चित और उसकी वृत्तियां
पतंजलि ने योग को चितवृत्ति निरोध कहा है। चित का अर्थ है अंत:करण। योग में बुद्धि ,अहंकार और मन तीनों को मिलाकर चित नाम दिया गया है। चित प्रथम प्रसूत तत्व है जिसमें सत्व गुण की प्रधानता मानी जाती है। जब चित इन्द्रियों द्वारा बाह्य विषयों के सम्पर्क में आता है तब वह विषयों का आकार ग्रहण कर लेता है। इस आकार को वृत्ति कहा जाता है। चितवृत्तियों भी पांच प्रकार की होती हैं १.प्रमाण २.विपयर्य ३.विकल्प ४.निद्रा ५.स्मृति। प्रमाण सत्य ज्ञान है। यह तीन प्रकार का है-प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द। मिथ्या ज्ञान को विपयर्य कहा जाता है जैसे रज्जु सर्प का ज्ञान। विकल्प शब्द ज्ञान से उत्पन्न होने वाला सत्य वस्तुशून्य ज्ञान है, यह कल्पना मात्र है जैसे शशशृंग। निद्रा को ज्ञान का अभाव माना जाता है। स्मृति संस्कार जन्य ज्ञान है। पुरुष जब बुद्धि में प्रकाशित अपने प्रतिबिम्ब से तादात्म्य कर लेता है तो वह बद्ध जीव के रूप में प्रतीत होता है। यह जीव ही जन्म मरण चक्र में संसरण करता है तथा नाना प्रकार के क्लेश भोगता है। क्लेश को पांच प्रकार का माना जाता है-अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश। अनित्य, अशुचि, दु:ख तथा अनात्म में नित्य, शुचि, सुख और आत्म बुद्धि रखना अविद्या है। पुरुष और चित दोनों में अंतर है। यह दोनों ही नितांत भिन्न हंै। पुरुष और चित दोनों को एक मान लेना ही अस्मिता है। विषयसुखों की तृष्णा या आसक्ति को राग कहा जाता है। सुख के अवरोधक और दुख के उत्पादक के प्रति जो क्रोध और हिंसा का भाव है उसे द्वेष कहते हैं। संसार के सभी जीवों में जीवन की आसक्ति और मृत्यु का भय मौजूद होता है। इसी को अभिनिवेश कहते हैं। अविद्या निवृत्ति तथा चित वृतिनिरोध से इन क्लेशों और कर्मों से मुक्ति मिलती है।
चित की भूमियां
योग दर्शन में चित को पांच भूमियां मानी गईं हैं जिन्हें क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरूद्ध कहा जाता हैं। क्षिप्त चित में रजोगुण का आधिक्य होता है जिससे वह अस्थिर, चंचल और विषयोमुन्ख बन कर सुख-दुख भोगता रहता है। मूढ़ चित में सत्व गुण न होकर तमोगुण का आधिक्य होता है। जिसके कारण कर्ता विवेकशून्य, कर्तव्यबोध रहित बनकर प्रमाद आलस्य निद्रा में पड़ा रहता है। साथ ही वह विवेकहीन कार्यों में प्रवृत्त होता है। विक्षिप्त चित में सत्वगुण की अधिकता रहती है लेकिन यहां कभी-कभी रजोगुण भी जोर मारता है। एकाग्र में सत्व का उत्कर्ष होता है और उसमें रजोगुण और तमोगुण दबे रहते हैं। चित की पांचवीं और अन्तिम भूमि में निरूद्ध कहलाती है। जब सारी वृत्तियों और सभी संस्कारों का पूर्ण रूप से निरोध हो जाता है। जब अविद्या की निवृति हो जाती है तो चित निरूद्ध होकर अविद्या में विलीन हो जाता है। यह मोक्ष की अवस्था है।
योग में अष्टांग योग
योग में अष्टांग योग की पूर्ण रूप से विवेचना की गई है। अष्टांग योग है यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। यम में पांच प्रकार के संयम का वर्णन किया गया है जो सत्य, अहिंसा , अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मर्चय कहा जाता है। नियम भी पांच माने जाते हैं जो शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, प्राणिधान। आसन शरीर के संयम से ही होता है। प्राणायाम को श्वास-प्रश्वास का संयम कहा जाता है। इन्द्रियों के संयम को प्रत्याहार कहा जाता है। शरीर के विभिन्न भागों जैसे नासाग्र में, भूमध्य में, हस्तकमल में या किसी बाह्य वस्तु में जैसे इष्टदेवता की मूर्ति आदि में चित को लगाना धारणा है। ध्येय वस्तु विषयक चितवृतियां जब निरन्तर एकाकार रूप से प्रवाहित हों तब इसे ध्यान कहते हैं। ध्येय वस्तु के ज्ञान की एकतानता का ध्यान है। समाधि का अर्थ है ध्येय वस्तु में चित की विक्षेप रहित एकाग्रता। समाधि में ध्यान ध्येय वस्तु का आकार ग्रहण कर लेता है। समाधि में ध्याता, ध्यान और ध्येय की त्रिपुटी में ध्येय ही शेष रह जाता है।
समाधि
समाधि को संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात दो रूपों में विभाजित किया गया है। संप्रज्ञात समाधि के अंतर्गत ध्येय वस्तु का ज्ञान बना रहता है। इसी प्रकार असंप्रज्ञात समाधि में चित का सर्वथा निरूद्ध हो जाता है। साथ ही संप्रज्ञात समाधि चार प्रकार की होती है सवितर्क, सविचार, सानन्द और सस्मित। सवितर्क समाधि में स्थूल वस्तु की भावना की जाती है। सविचार में तन्मात्रा आदि सूक्ष्म वस्तु की भावना की जाती है। प्रज्ञा के उदय होने पर अविद्या नाश से वृत्तियों एवं संस्कारों का सर्वथा निरोध हो जाता है। दृष्टा की अपने स्वरूप से अर्थात नित्य विशुद्ध चैतन्य में प्रतिष्ठा हो जाती है। प्रज्ञा उदय होकर अविद्या, वृति और संस्कार को भस्म करके परमा वृति के रूप में स्वयं भी उपशान्त हो जाती है। चितवृति निरोध एवं स्वरूपास्था कैवल्य या मोक्ष है।
भगवतगीता में योग
भगवतगीता में योग शब्द का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर हुआ है। यहां योग का प्रयोग सामान्य अर्थ में नहीं बल्कि विशेष अर्थ में किया गया है। गीता में योग के अंतर्गत ध्यान, ज्ञान, कर्म और भक्ति का समन्वय किया गया है। योग शब्द का अर्थ है मिलन अर्थात जीवात्मा का परमात्मा से मिलना। योग में दुख से वियोग होता है और अखण्ड आनंद से संयोग होता है। योग से तात्पर्य है धारण-ध्यान-समाधि। योग स्थितप्रज्ञ की द्वन्द्वातीत ब्राह्मी स्थिति है। साथ ही योग निष्काम कर्म है, कर्म कौशल अर्थात कामनारहित कर्म है (कर्मयोग)। योग शक्ति द्वारा भगवत तत्व का सम्यक ज्ञान और भगवत प्रवेश है (भक्तियोग)।
जैन और बौद्ध दर्शन में योग
सभी भारतीय दर्शनों की तरह जैन दर्शन में भी योग के बारे में विवेचना की गई है। यहां सम्यक दर्शन, सम्यक चरित और सम्यक ज्ञान के रूप में योग का प्रतिपादन किया गया है। बौद्ध दर्शन ने भी योग की महत्ता स्वीकार की है। शून्यवाद में भी कहा गया है कि अविद्या के कारण ही जीव बन्धन में पड़ जाता है और बन्धन का निरोध निरपेक्ष प्रज्ञा या बोध के द्वारा ही सम्भव है। इसी तरह विज्ञानवादी भी योग-साधना द्वारा अविद्या का निरोध करके विशुद्ध विज्ञान मात्र का साक्षात्कार होने पर परतन्त्र अपने विशुद्ध परिनिष्पन्न रूप में प्रकाशित होता है। इसलिए परिनिष्पन्न परतन्त्र से न अन्य और अनन्य। दोनों में तादाम्य के अतिरिक्त कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता। विज्ञानवाद में योग साधना पर अत्यधिक बल दिया गया है। चार ध्यान, छह पारमितायें, दस भूमियां आदि विस्तार से वर्णित हैं।
न्याय वैशेषिक भी योग की महत्ता को स्वीकार करते हैं। यहां मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञानयोग को अधिक महत्व दिया गया है। मीमांसा दर्शन में मोक्ष प्राप्ति हेतु कुमारिल कर्मज्ञान समुच्चयवाद के पोषक थे। अर्थात वह ज्ञानयोग और कर्मयोग को मानते थे। शंकराचार्य भी योग को मोक्ष प्राप्ति के साधन के रूप में ज्ञान, कर्म और भक्ति योग की महत्ता स्वीकार करते हैं। रामानुज भी योग को महत्वपूर्ण मानते हंै। उन्होने भक्ति योग पर अधिक बल दिया गया है।
योग पर श्री अरविंद के विचार
समकालीन भारतीय दर्शन ने भी मोक्ष प्राप्ति के साधन के रूप में योग की महत्ता को नकारा नहीं है। यहां श्री अरविंद ने अपने योग को पूर्ण अद्वैत कहा है। अरविंद के पूर्ण अद्वैत योग कहने के दो आधार हैं एक तो यह है कि उनके दर्शन में योग के सभी रूपों का समन्वय है तथा दूसरा आधार यह है कि उनकी योग विधि में कई ऐसे अनुशासन भी समाविष्ट हैं जिनकी ओर अन्य योग दर्शनों ने ध्यान नहीं दिया है। श्री अरविंद का कहना है कि योग की मूल विशिष्टता यह है कि यह सर्वांगी विकास पर बल देता है, आंशिक विकास पर नहीं। आत्मा के सभी पक्षों का जैसे उसके भौतिक, जैविक, मानसिक आदि सभी अंगों का पूर्ण रूपान्तरण करने की आवश्यकता है। अत: पूर्ण योग वही कहा जा सकता है जो इस तरह के रूपांतरण पर जोर दे।
विवेकानंद का राजयोग
विवेकानंद ने ज्ञान योग, भक्ति योग, कर्म योग और राज योग का अलग-अलग वर्णन किया है। यह चारों योग का लक्ष्य तो एक ही है अमरता की प्राप्ति करना लेकिन उनकी पद्धति अलग- अलग है। विवेकानंद ने व्यक्ति के मन और अभिरूचि के अनुसार इन चारों योग मार्गों का वर्णन का किया है ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार योग का चुनाव कर अमरत्व को प्राप्त कर सके। साथ ही वे कहते हैं यह मार्ग तो अलग-अलग अवश्य हैं लेकिन इन्हें कभी भी एक दूसरे पृथक नहीं समझना चाहिए बल्कि ये एक दूसरे से सम्बद्ध हैं।
विवेकानंद के राज योग में मन तथा शरीर के पूर्ण नियंत्रण की बात की जाती है। इसमें मन तथा शरीर पर नियंत्रण करने के लिए कुछ विशेष विधियां अनुशंसित हैं। राज योग के समर्थकों का मानना है कि यह मोक्ष प्राप्ति का सबसे सहज और तेजी से फल देने वाला मार्ग है। इसलिए इसे योगों का राजा कहा गया है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि सभी भारतीय दर्शनों ने योग की विविध व्याख्या प्रस्तुत की है। कहीं भक्ति योग का महत्व दिया गया है तो कहीं ज्ञानयोग को प्रधानता दी गई है। किसी दर्शन ने ज्ञानयोग को स्वीकारा है तो किसी ने राजयोग की प्रमुखता पर प्रकाश डाला है। साथ ही यहां गीता का दर्शन भी मौजूद है जिसने ज्ञान, भक्ति और कर्म का समन्वय कर सहिष्णुता का परिचय दिया है।
भारतीय धर्म और दर्शन में योग का महत्वपूर्ण स्थान है। भारतीय दर्शन में योग शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थों में हुआ है। योग की सभी दर्शनों में विविध व्याख्या की गई है। आत्मोन्नति के साधन के रूप में योग की महत्ता को वेद, उपनिषद, स्मृति, पुराण में भी स्वीकार किया गया है। मनुष्य का चित या स्थिर होने पर उसे धर्म या दर्शन के तथ्य का सम्पूर्ण ज्ञान हो सकता है। शुद्ध और शांत मन से ही हम गूढ़ सत्यों को प्राप्त कर सकते हैं। योग से शरीर और मन की शुद्धि हो जाती है। इसलिए सभी भारतीय दर्शन अपने-अपने सिद्धांतों की यौगिक रीति से ध्यान, धारणा आदि के द्वारा स्पष्ट अनुभव करने के लिए प्रयास करते हैं। सविकल्प बुद्धि को निर्विकल्प प्रज्ञा में परिणत करने केलिए योग साधना की उपादेयता र्निविवाद रूप से स्वीकृत है। संहिता, आरण्यक और उपनिषद में योग की महत्ता क ा वर्णन है। योग के कई प्रकार हैं। गीता में ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग तथा ध्यानयोग का वर्णन है। इसके अलावा राजयोग एवं हठयोग भी प्रसिद्ध है।
भारतीय दर्शन में योग शब्द की व्याख्या विभिन्न अर्थों में की गई है। आमतौर पर योग शब्द का अर्थ मिलन होता है जो जीवात्मा का परमात्मा से मिलन के लिए प्रयुक्त किया जाता है। योग वह स्थिति है जिसमें योगी दुखों से विचलित नहीं होता। इस स्थिति से बढ़कर अन्य कोई लाभ नहीं मानता और उसमें वह सुख का अनुभव करता है। पातंजलि योग-सूत्र में चार पाद बताए गए हैं। पहला समाधिपाद है जिसमें समाधि के रूप तथा उसकी वृत्तियों का वर्णन किया गया है। दूसरा है साधनपाद जिसमें क्रियायोग, क्लेश, क्लेश दूर करने के साधन, योग के बहिरंगों का वर्णन है। तीसरे को विभूतिपाद के नाम से जाना जाता है जिसमें योग अन्तरंगों का एवं योगशक्ति से उत्पन्न विभूतियों का तथा कैवल्य आदि का निरूपण है।
चित और उसकी वृत्तियां
पतंजलि ने योग को चितवृत्ति निरोध कहा है। चित का अर्थ है अंत:करण। योग में बुद्धि ,अहंकार और मन तीनों को मिलाकर चित नाम दिया गया है। चित प्रथम प्रसूत तत्व है जिसमें सत्व गुण की प्रधानता मानी जाती है। जब चित इन्द्रियों द्वारा बाह्य विषयों के सम्पर्क में आता है तब वह विषयों का आकार ग्रहण कर लेता है। इस आकार को वृत्ति कहा जाता है। चितवृत्तियों भी पांच प्रकार की होती हैं १.प्रमाण २.विपयर्य ३.विकल्प ४.निद्रा ५.स्मृति। प्रमाण सत्य ज्ञान है। यह तीन प्रकार का है-प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द। मिथ्या ज्ञान को विपयर्य कहा जाता है जैसे रज्जु सर्प का ज्ञान। विकल्प शब्द ज्ञान से उत्पन्न होने वाला सत्य वस्तुशून्य ज्ञान है, यह कल्पना मात्र है जैसे शशशृंग। निद्रा को ज्ञान का अभाव माना जाता है। स्मृति संस्कार जन्य ज्ञान है। पुरुष जब बुद्धि में प्रकाशित अपने प्रतिबिम्ब से तादात्म्य कर लेता है तो वह बद्ध जीव के रूप में प्रतीत होता है। यह जीव ही जन्म मरण चक्र में संसरण करता है तथा नाना प्रकार के क्लेश भोगता है। क्लेश को पांच प्रकार का माना जाता है-अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश। अनित्य, अशुचि, दु:ख तथा अनात्म में नित्य, शुचि, सुख और आत्म बुद्धि रखना अविद्या है। पुरुष और चित दोनों में अंतर है। यह दोनों ही नितांत भिन्न हंै। पुरुष और चित दोनों को एक मान लेना ही अस्मिता है। विषयसुखों की तृष्णा या आसक्ति को राग कहा जाता है। सुख के अवरोधक और दुख के उत्पादक के प्रति जो क्रोध और हिंसा का भाव है उसे द्वेष कहते हैं। संसार के सभी जीवों में जीवन की आसक्ति और मृत्यु का भय मौजूद होता है। इसी को अभिनिवेश कहते हैं। अविद्या निवृत्ति तथा चित वृतिनिरोध से इन क्लेशों और कर्मों से मुक्ति मिलती है।
चित की भूमियां
योग दर्शन में चित को पांच भूमियां मानी गईं हैं जिन्हें क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरूद्ध कहा जाता हैं। क्षिप्त चित में रजोगुण का आधिक्य होता है जिससे वह अस्थिर, चंचल और विषयोमुन्ख बन कर सुख-दुख भोगता रहता है। मूढ़ चित में सत्व गुण न होकर तमोगुण का आधिक्य होता है। जिसके कारण कर्ता विवेकशून्य, कर्तव्यबोध रहित बनकर प्रमाद आलस्य निद्रा में पड़ा रहता है। साथ ही वह विवेकहीन कार्यों में प्रवृत्त होता है। विक्षिप्त चित में सत्वगुण की अधिकता रहती है लेकिन यहां कभी-कभी रजोगुण भी जोर मारता है। एकाग्र में सत्व का उत्कर्ष होता है और उसमें रजोगुण और तमोगुण दबे रहते हैं। चित की पांचवीं और अन्तिम भूमि में निरूद्ध कहलाती है। जब सारी वृत्तियों और सभी संस्कारों का पूर्ण रूप से निरोध हो जाता है। जब अविद्या की निवृति हो जाती है तो चित निरूद्ध होकर अविद्या में विलीन हो जाता है। यह मोक्ष की अवस्था है।
योग में अष्टांग योग
योग में अष्टांग योग की पूर्ण रूप से विवेचना की गई है। अष्टांग योग है यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। यम में पांच प्रकार के संयम का वर्णन किया गया है जो सत्य, अहिंसा , अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मर्चय कहा जाता है। नियम भी पांच माने जाते हैं जो शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, प्राणिधान। आसन शरीर के संयम से ही होता है। प्राणायाम को श्वास-प्रश्वास का संयम कहा जाता है। इन्द्रियों के संयम को प्रत्याहार कहा जाता है। शरीर के विभिन्न भागों जैसे नासाग्र में, भूमध्य में, हस्तकमल में या किसी बाह्य वस्तु में जैसे इष्टदेवता की मूर्ति आदि में चित को लगाना धारणा है। ध्येय वस्तु विषयक चितवृतियां जब निरन्तर एकाकार रूप से प्रवाहित हों तब इसे ध्यान कहते हैं। ध्येय वस्तु के ज्ञान की एकतानता का ध्यान है। समाधि का अर्थ है ध्येय वस्तु में चित की विक्षेप रहित एकाग्रता। समाधि में ध्यान ध्येय वस्तु का आकार ग्रहण कर लेता है। समाधि में ध्याता, ध्यान और ध्येय की त्रिपुटी में ध्येय ही शेष रह जाता है।
समाधि
समाधि को संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात दो रूपों में विभाजित किया गया है। संप्रज्ञात समाधि के अंतर्गत ध्येय वस्तु का ज्ञान बना रहता है। इसी प्रकार असंप्रज्ञात समाधि में चित का सर्वथा निरूद्ध हो जाता है। साथ ही संप्रज्ञात समाधि चार प्रकार की होती है सवितर्क, सविचार, सानन्द और सस्मित। सवितर्क समाधि में स्थूल वस्तु की भावना की जाती है। सविचार में तन्मात्रा आदि सूक्ष्म वस्तु की भावना की जाती है। प्रज्ञा के उदय होने पर अविद्या नाश से वृत्तियों एवं संस्कारों का सर्वथा निरोध हो जाता है। दृष्टा की अपने स्वरूप से अर्थात नित्य विशुद्ध चैतन्य में प्रतिष्ठा हो जाती है। प्रज्ञा उदय होकर अविद्या, वृति और संस्कार को भस्म करके परमा वृति के रूप में स्वयं भी उपशान्त हो जाती है। चितवृति निरोध एवं स्वरूपास्था कैवल्य या मोक्ष है।
भगवतगीता में योग
भगवतगीता में योग शब्द का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर हुआ है। यहां योग का प्रयोग सामान्य अर्थ में नहीं बल्कि विशेष अर्थ में किया गया है। गीता में योग के अंतर्गत ध्यान, ज्ञान, कर्म और भक्ति का समन्वय किया गया है। योग शब्द का अर्थ है मिलन अर्थात जीवात्मा का परमात्मा से मिलना। योग में दुख से वियोग होता है और अखण्ड आनंद से संयोग होता है। योग से तात्पर्य है धारण-ध्यान-समाधि। योग स्थितप्रज्ञ की द्वन्द्वातीत ब्राह्मी स्थिति है। साथ ही योग निष्काम कर्म है, कर्म कौशल अर्थात कामनारहित कर्म है (कर्मयोग)। योग शक्ति द्वारा भगवत तत्व का सम्यक ज्ञान और भगवत प्रवेश है (भक्तियोग)।
जैन और बौद्ध दर्शन में योग
सभी भारतीय दर्शनों की तरह जैन दर्शन में भी योग के बारे में विवेचना की गई है। यहां सम्यक दर्शन, सम्यक चरित और सम्यक ज्ञान के रूप में योग का प्रतिपादन किया गया है। बौद्ध दर्शन ने भी योग की महत्ता स्वीकार की है। शून्यवाद में भी कहा गया है कि अविद्या के कारण ही जीव बन्धन में पड़ जाता है और बन्धन का निरोध निरपेक्ष प्रज्ञा या बोध के द्वारा ही सम्भव है। इसी तरह विज्ञानवादी भी योग-साधना द्वारा अविद्या का निरोध करके विशुद्ध विज्ञान मात्र का साक्षात्कार होने पर परतन्त्र अपने विशुद्ध परिनिष्पन्न रूप में प्रकाशित होता है। इसलिए परिनिष्पन्न परतन्त्र से न अन्य और अनन्य। दोनों में तादाम्य के अतिरिक्त कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता। विज्ञानवाद में योग साधना पर अत्यधिक बल दिया गया है। चार ध्यान, छह पारमितायें, दस भूमियां आदि विस्तार से वर्णित हैं।
न्याय वैशेषिक भी योग की महत्ता को स्वीकार करते हैं। यहां मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञानयोग को अधिक महत्व दिया गया है। मीमांसा दर्शन में मोक्ष प्राप्ति हेतु कुमारिल कर्मज्ञान समुच्चयवाद के पोषक थे। अर्थात वह ज्ञानयोग और कर्मयोग को मानते थे। शंकराचार्य भी योग को मोक्ष प्राप्ति के साधन के रूप में ज्ञान, कर्म और भक्ति योग की महत्ता स्वीकार करते हैं। रामानुज भी योग को महत्वपूर्ण मानते हंै। उन्होने भक्ति योग पर अधिक बल दिया गया है।
योग पर श्री अरविंद के विचार
समकालीन भारतीय दर्शन ने भी मोक्ष प्राप्ति के साधन के रूप में योग की महत्ता को नकारा नहीं है। यहां श्री अरविंद ने अपने योग को पूर्ण अद्वैत कहा है। अरविंद के पूर्ण अद्वैत योग कहने के दो आधार हैं एक तो यह है कि उनके दर्शन में योग के सभी रूपों का समन्वय है तथा दूसरा आधार यह है कि उनकी योग विधि में कई ऐसे अनुशासन भी समाविष्ट हैं जिनकी ओर अन्य योग दर्शनों ने ध्यान नहीं दिया है। श्री अरविंद का कहना है कि योग की मूल विशिष्टता यह है कि यह सर्वांगी विकास पर बल देता है, आंशिक विकास पर नहीं। आत्मा के सभी पक्षों का जैसे उसके भौतिक, जैविक, मानसिक आदि सभी अंगों का पूर्ण रूपान्तरण करने की आवश्यकता है। अत: पूर्ण योग वही कहा जा सकता है जो इस तरह के रूपांतरण पर जोर दे।
विवेकानंद का राजयोग
विवेकानंद ने ज्ञान योग, भक्ति योग, कर्म योग और राज योग का अलग-अलग वर्णन किया है। यह चारों योग का लक्ष्य तो एक ही है अमरता की प्राप्ति करना लेकिन उनकी पद्धति अलग- अलग है। विवेकानंद ने व्यक्ति के मन और अभिरूचि के अनुसार इन चारों योग मार्गों का वर्णन का किया है ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार योग का चुनाव कर अमरत्व को प्राप्त कर सके। साथ ही वे कहते हैं यह मार्ग तो अलग-अलग अवश्य हैं लेकिन इन्हें कभी भी एक दूसरे पृथक नहीं समझना चाहिए बल्कि ये एक दूसरे से सम्बद्ध हैं।
विवेकानंद के राज योग में मन तथा शरीर के पूर्ण नियंत्रण की बात की जाती है। इसमें मन तथा शरीर पर नियंत्रण करने के लिए कुछ विशेष विधियां अनुशंसित हैं। राज योग के समर्थकों का मानना है कि यह मोक्ष प्राप्ति का सबसे सहज और तेजी से फल देने वाला मार्ग है। इसलिए इसे योगों का राजा कहा गया है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि सभी भारतीय दर्शनों ने योग की विविध व्याख्या प्रस्तुत की है। कहीं भक्ति योग का महत्व दिया गया है तो कहीं ज्ञानयोग को प्रधानता दी गई है। किसी दर्शन ने ज्ञानयोग को स्वीकारा है तो किसी ने राजयोग की प्रमुखता पर प्रकाश डाला है। साथ ही यहां गीता का दर्शन भी मौजूद है जिसने ज्ञान, भक्ति और कर्म का समन्वय कर सहिष्णुता का परिचय दिया है।