रविवार का मतलब सन्डे ,सन्डे यानि छुट्टी ,छुट्टी उस काम की जो एक वर्ग विशेष करता है ,वह काम जो जनता से जनता को और जनता के लिए किया जाता है ,क्यूंकि यंहा लोकतंत्र है ,लोकतंत्र जो राजनीतिज्ञओ के बेठ्को में ,संसद
के गलियारों में ,नेताओ की रैलिओं में ,नेताओ के डिजैनेर धोती कुर्तो में ,हर पांच साल बाद होने वाले आम चुनाव और विधानसभा चुनाव में दिखाई पड़ता है ,यह लोकतंत्र क्या देश के उन करोडो भूखे नगे गरीब लोगो को समझ आ सकता है जिनका जीवन दर्शन ही रोटी के इर्द गिर्द दिखाई पड़ता है ,जिन्हें अगर एक पहर रोटी मिलती है तो दुसरे पहर की कोई गारंटी नही होती ,उनके लिए और उन गरीब मजदूरों के जो थोड़े से पैसो के लिए हाड़ तोड़ मेहनत करते है ,उनको इस के कायदे कानूनों से भला क्या सरोकार ,उन्हें उस सन्डे की छुटी से क्या जो हम मनाते है ,हमारा संडे तो चाय की चुस्कियों के साथ किसी बडे अख़बार का रविवारीय विशेषांक पड़ते हुए शुरू करते है ,लेकिन उनका क्या जो एक वक्क्त की रोटी के तरस रहे है ,उनके उस भूख जो सडको ,चौराहों के इर्द ग्रिद दिखाई पड़ती है
एक गली जहाँ मुड़ती है,वहा रुक कर एक बार हम सोचते हैं अपने,अपनों और दुनिया के बारे में ...........,बस यही कुछ बाते आपसे बाँटना चाहती हूँ ..........

रविवार, 9 अगस्त 2009
शनिवार, 8 अगस्त 2009
आबरू
एक सुबह आबरू को सड़क पर पड़े देखा ,
देखा उसे पीठ के लेटे साँस रहित मरी सी
मरी सी पर जीवीत थी आबरू बनकर
आबरू जो लुट पीट चुक थी द्रीदों के हाथो
उन हाथो से जो अपने घर की आबरू को बचाते
बचा के रखते है उसे घरो में बैठको में सजाते
सजा के रखते उसे जो गरीबो असहायों की नही
नही है महानगरो में अकेली लडकी की
उस लडकी की जो देर शाम नीक्लने डरती है
डरती है वह उस घटना जो मार न दे उसकी आबरू को
देखा उसे पीठ के लेटे साँस रहित मरी सी
मरी सी पर जीवीत थी आबरू बनकर
आबरू जो लुट पीट चुक थी द्रीदों के हाथो
उन हाथो से जो अपने घर की आबरू को बचाते
बचा के रखते है उसे घरो में बैठको में सजाते
सजा के रखते उसे जो गरीबो असहायों की नही
नही है महानगरो में अकेली लडकी की
उस लडकी की जो देर शाम नीक्लने डरती है
डरती है वह उस घटना जो मार न दे उसकी आबरू को
वो परी
जनवरी की सुबह तक़रीबन ७ बजे वो मुझे बनारस से इलाहाबाद की पिसेंजेर ट्रेन में देखाई दी ;उस समय तापमान करीब आठ से दस डिगरी के बीच में था मैंने माँ की डांट के कारण ख़ुद को ठीक से शाल से लपेट रखा था ; वो कही चडी पर एस्टेसन मुझे याद नही ,तक़रीबन चार साल की होगी छोटे बीखरे कंधे तक बाल उनमे कुछ लटे उसके सवाले कोमल चहरे पर पड़ रही थी जीन्हें वो अपने नन्हे हाथो से समेट रही थी ,नगे पाव बाजुओ से कटी घुटने तक लाल फ्राक पहने वो मुझे अफ्रीकन माडल सी लग रही थी ,अनायास ही नजरे उसकी तरफ़ ही जा रही थी ऐसा लग रहा था मानो मै उसे कीतने सालो से जानती हु पर उसकी नज़रे भी मुझे देख रही थी पर थोडी डरी हुई सी; वो अकेली नही थी उसके साथ उसका पुरा परीवार था माँ बाप और छोटा भाई जीसे उसके बाबू ने गोद में उठा लीया था ,और माँ जीस्के हाथ में पाच रुपये का पार्लेजी बीस्कुट था वो अपने बेटे बहुत दुलार रही थी , पर वो अपनों के बीच भी अलग थी ,न ही बाबू और न ही माँ को उसकी परवाह थी वो तो ट्रेन के ठंठे फर्श पर बैठ हसरत भरी नजरो से देख रही थी की कब माँ उसे भी बीस्कुट का एक टुकडा देकर गोद में लेगी ,वो तो अपनों के बीच भी अनाथ थी ,तो उनका जो सच में अनाथ है मै उसे बीस्कुट और गरम कपडे दे सकती हु पर उस प्यार उस दुलार का क्या जो उसे उसकी जननी से चाहीए इसे तो उसके माँ और बाबू ही देगे ,
शुक्रवार, 7 अगस्त 2009
आज की नारी
नारी जो भगवान की सबसे अच्छी रचना है ,
उसके विविध रूपों का चिन्तन एक सुखद अनुभव है ,
वह कही सीता कही सावित्री कही सोनिया तो कही सानिया है ,
अपाला मैत्रेयी राखी मीरा ममता और माया रूप भी लुभाते है ,
कभी दादी नानी चाची काकी मामी बुआ और माँ बनकर प्रेम बरसाती है ,
वह कभी लोपा कभी लक्ष्मी बाई कभी लोलिता तो कभी लोपेज़ है ,
कभी बहन कभी पत्नी कभी क्लास्स्मेट कभी गर्लफ्रेंड बनकर हर पल साथ निभाती है
अब नारी केवल श्रदा नही बल्कि समाज की नस नस में बसी है
उसके विविध रूपों का चिन्तन एक सुखद अनुभव है ,
वह कही सीता कही सावित्री कही सोनिया तो कही सानिया है ,
अपाला मैत्रेयी राखी मीरा ममता और माया रूप भी लुभाते है ,
कभी दादी नानी चाची काकी मामी बुआ और माँ बनकर प्रेम बरसाती है ,
वह कभी लोपा कभी लक्ष्मी बाई कभी लोलिता तो कभी लोपेज़ है ,
कभी बहन कभी पत्नी कभी क्लास्स्मेट कभी गर्लफ्रेंड बनकर हर पल साथ निभाती है
अब नारी केवल श्रदा नही बल्कि समाज की नस नस में बसी है
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