मंगलवार, 11 अगस्त 2015

                   भारतीय दर्शन में योग का महत्व      

भारतीय धर्म और दर्शन में योग का महत्वपूर्ण स्थान है। भारतीय दर्शन में योग शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थों में हुआ है। योग की सभी दर्शनों में विविध व्याख्या की गई है। आत्मोन्नति के साधन के रूप में योग की महत्ता को वेद, उपनिषद, स्मृति, पुराण में भी स्वीकार किया गया है। मनुष्य का चित या स्थिर होने पर उसे धर्म या दर्शन के तथ्य का सम्पूर्ण ज्ञान हो सकता है। शुद्ध और शांत मन से ही हम गूढ़ सत्यों को प्राप्त कर सकते हैं। योग से शरीर और मन की शुद्धि हो जाती है। इसलिए सभी भारतीय दर्शन अपने-अपने सिद्धांतों की यौगिक रीति से ध्यान, धारणा आदि के द्वारा स्पष्ट अनुभव करने के लिए प्रयास करते हैं। सविकल्प बुद्धि को निर्विकल्प प्रज्ञा में परिणत करने केलिए योग साधना की उपादेयता र्निविवाद रूप से स्वीकृत है। संहिता, आरण्यक और उपनिषद में योग की महत्ता क ा वर्णन है। योग के कई प्रकार हैं। गीता में ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग तथा ध्यानयोग का वर्णन है। इसके अलावा राजयोग एवं हठयोग भी प्रसिद्ध है।
भारतीय दर्शन में योग शब्द की व्याख्या विभिन्न अर्थों में की गई है। आमतौर पर योग शब्द का अर्थ मिलन होता है जो जीवात्मा का परमात्मा से मिलन के लिए प्रयुक्त किया जाता है। योग वह स्थिति है जिसमें योगी दुखों से विचलित नहीं होता। इस स्थिति से बढ़कर अन्य कोई लाभ नहीं मानता और उसमें वह सुख का अनुभव करता है। पातंजलि योग-सूत्र में चार पाद बताए गए हैं। पहला समाधिपाद है जिसमें समाधि के रूप तथा उसकी वृत्तियों का वर्णन किया गया है। दूसरा है साधनपाद जिसमें क्रियायोग, क्लेश, क्लेश दूर करने के साधन, योग के बहिरंगों का वर्णन है। तीसरे को विभूतिपाद के नाम से जाना जाता है जिसमें योग अन्तरंगों का एवं योगशक्ति से उत्पन्न विभूतियों का तथा कैवल्य आदि का निरूपण है।
चित और उसकी वृत्तियां
पतंजलि ने योग को चितवृत्ति निरोध कहा है। चित का अर्थ है अंत:करण। योग में बुद्धि ,अहंकार और मन तीनों को मिलाकर चित नाम दिया गया है। चित प्रथम प्रसूत तत्व है जिसमें सत्व गुण की प्रधानता मानी जाती है। जब चित इन्द्रियों द्वारा बाह्य विषयों के सम्पर्क में आता है तब वह विषयों का आकार ग्रहण कर लेता है। इस आकार को वृत्ति कहा जाता है। चितवृत्तियों भी पांच प्रकार की होती हैं १.प्रमाण २.विपयर्य ३.विकल्प ४.निद्रा ५.स्मृति। प्रमाण सत्य ज्ञान है। यह तीन प्रकार का है-प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द। मिथ्या ज्ञान को विपयर्य कहा जाता है जैसे रज्जु सर्प का ज्ञान। विकल्प शब्द ज्ञान से उत्पन्न होने वाला सत्य वस्तुशून्य ज्ञान है, यह कल्पना मात्र है जैसे शशशृंग। निद्रा को ज्ञान का अभाव माना जाता है। स्मृति संस्कार जन्य ज्ञान है। पुरुष जब बुद्धि में प्रकाशित अपने प्रतिबिम्ब से तादात्म्य कर लेता है तो वह बद्ध जीव के रूप में प्रतीत होता है। यह जीव ही जन्म मरण चक्र में संसरण करता है तथा नाना प्रकार के क्लेश भोगता है। क्लेश को पांच प्रकार का माना जाता है-अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश। अनित्य, अशुचि, दु:ख तथा अनात्म में नित्य, शुचि, सुख और आत्म बुद्धि रखना अविद्या है। पुरुष और चित दोनों में अंतर है। यह दोनों ही नितांत भिन्न हंै। पुरुष और चित दोनों को एक मान लेना ही अस्मिता है। विषयसुखों की तृष्णा या आसक्ति को राग कहा जाता है। सुख के अवरोधक और दुख के उत्पादक के प्रति जो क्रोध और हिंसा का भाव है उसे द्वेष कहते हैं। संसार के सभी जीवों में जीवन की आसक्ति और मृत्यु का भय मौजूद होता है। इसी को अभिनिवेश कहते हैं। अविद्या निवृत्ति तथा चित वृतिनिरोध से इन क्लेशों और कर्मों से मुक्ति मिलती है।
चित की भूमियां
योग दर्शन में चित को पांच भूमियां मानी गईं हैं जिन्हें क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरूद्ध कहा जाता हैं। क्षिप्त चित में रजोगुण का आधिक्य होता है जिससे वह अस्थिर, चंचल और विषयोमुन्ख बन कर सुख-दुख भोगता रहता है। मूढ़ चित में सत्व गुण न होकर तमोगुण का आधिक्य होता है। जिसके कारण कर्ता विवेकशून्य, कर्तव्यबोध रहित बनकर प्रमाद आलस्य निद्रा में पड़ा रहता है। साथ ही वह विवेकहीन कार्यों में प्रवृत्त होता है। विक्षिप्त चित में सत्वगुण की अधिकता रहती है लेकिन यहां कभी-कभी रजोगुण भी जोर मारता है। एकाग्र में सत्व का उत्कर्ष होता है और उसमें रजोगुण और तमोगुण दबे रहते हैं। चित की पांचवीं और अन्तिम भूमि में निरूद्ध कहलाती है। जब सारी वृत्तियों और सभी संस्कारों का पूर्ण रूप से निरोध हो जाता है। जब अविद्या की निवृति हो जाती है तो चित निरूद्ध होकर अविद्या में विलीन हो जाता है। यह मोक्ष की अवस्था है।
योग में अष्टांग योग
योग में अष्टांग योग की पूर्ण रूप से विवेचना की गई है। अष्टांग योग है यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। यम में पांच प्रकार के संयम का वर्णन किया गया है जो सत्य, अहिंसा , अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मर्चय कहा जाता है। नियम भी पांच माने जाते हैं जो शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, प्राणिधान। आसन शरीर के संयम से ही होता है। प्राणायाम को श्वास-प्रश्वास का संयम कहा जाता है। इन्द्रियों के संयम को प्रत्याहार कहा जाता है। शरीर के विभिन्न भागों जैसे नासाग्र में, भूमध्य में, हस्तकमल में या किसी बाह्य वस्तु में जैसे इष्टदेवता की मूर्ति आदि में चित को लगाना धारणा है। ध्येय वस्तु विषयक चितवृतियां जब निरन्तर एकाकार रूप से प्रवाहित हों तब इसे ध्यान कहते हैं। ध्येय वस्तु के ज्ञान की एकतानता का ध्यान है। समाधि का अर्थ है ध्येय वस्तु में चित की विक्षेप रहित एकाग्रता। समाधि में ध्यान ध्येय वस्तु का आकार ग्रहण कर लेता है। समाधि में ध्याता, ध्यान और ध्येय की त्रिपुटी में ध्येय ही शेष रह जाता है।
समाधि
समाधि को संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात दो रूपों में विभाजित किया गया है। संप्रज्ञात समाधि के अंतर्गत ध्येय वस्तु का ज्ञान बना रहता है। इसी प्रकार असंप्रज्ञात समाधि में चित का सर्वथा निरूद्ध हो जाता है। साथ ही संप्रज्ञात समाधि चार प्रकार की होती है सवितर्क, सविचार, सानन्द और सस्मित। सवितर्क समाधि में स्थूल वस्तु की भावना की जाती है। सविचार में तन्मात्रा आदि सूक्ष्म वस्तु की भावना की जाती है। प्रज्ञा के उदय होने पर अविद्या नाश से वृत्तियों एवं संस्कारों का सर्वथा निरोध हो जाता है।  दृष्टा की अपने स्वरूप से अर्थात नित्य विशुद्ध चैतन्य में प्रतिष्ठा हो जाती है। प्रज्ञा उदय होकर अविद्या, वृति और संस्कार को भस्म करके परमा वृति के रूप में स्वयं भी उपशान्त हो जाती है। चितवृति निरोध एवं स्वरूपास्था कैवल्य या मोक्ष है।
भगवतगीता में योग
भगवतगीता में योग शब्द का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर हुआ है। यहां योग का प्रयोग सामान्य अर्थ में नहीं बल्कि विशेष अर्थ में किया गया है। गीता में योग के अंतर्गत ध्यान, ज्ञान, कर्म और भक्ति का समन्वय किया गया है। योग शब्द का अर्थ है मिलन अर्थात जीवात्मा का परमात्मा से मिलना। योग में दुख से वियोग होता है और अखण्ड आनंद से संयोग होता है। योग से तात्पर्य है धारण-ध्यान-समाधि। योग स्थितप्रज्ञ की द्वन्द्वातीत ब्राह्मी स्थिति है। साथ ही योग निष्काम कर्म है, कर्म कौशल अर्थात कामनारहित कर्म है (कर्मयोग)। योग शक्ति द्वारा भगवत तत्व का सम्यक ज्ञान और भगवत प्रवेश है (भक्तियोग)।
जैन और बौद्ध दर्शन में योग
सभी भारतीय दर्शनों की तरह जैन दर्शन में भी योग के बारे में विवेचना की गई है। यहां सम्यक दर्शन, सम्यक चरित और सम्यक ज्ञान के रूप में योग का प्रतिपादन किया गया है। बौद्ध दर्शन ने भी योग की महत्ता स्वीकार की है। शून्यवाद में भी कहा गया है कि अविद्या के कारण ही जीव बन्धन में पड़ जाता है और बन्धन का निरोध निरपेक्ष प्रज्ञा या बोध के द्वारा ही सम्भव है। इसी तरह विज्ञानवादी भी योग-साधना द्वारा अविद्या का निरोध करके विशुद्ध विज्ञान मात्र का साक्षात्कार होने पर परतन्त्र अपने विशुद्ध परिनिष्पन्न रूप में प्रकाशित होता है। इसलिए परिनिष्पन्न परतन्त्र से न अन्य और अनन्य। दोनों में तादाम्य के अतिरिक्त कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता। विज्ञानवाद में योग साधना पर अत्यधिक बल दिया गया है। चार ध्यान, छह पारमितायें, दस भूमियां आदि विस्तार से वर्णित हैं।
न्याय वैशेषिक भी योग की महत्ता को स्वीकार करते हैं। यहां मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञानयोग को अधिक महत्व दिया गया है। मीमांसा दर्शन में मोक्ष प्राप्ति हेतु कुमारिल कर्मज्ञान समुच्चयवाद के पोषक थे। अर्थात वह ज्ञानयोग और कर्मयोग को मानते थे। शंकराचार्य भी योग को मोक्ष प्राप्ति के साधन के रूप में ज्ञान, कर्म और भक्ति योग की महत्ता स्वीकार करते हैं। रामानुज भी योग को महत्वपूर्ण मानते हंै। उन्होने भक्ति योग पर अधिक बल दिया गया है।
योग पर श्री अरविंद के विचार
समकालीन भारतीय दर्शन ने भी मोक्ष प्राप्ति के साधन के रूप में योग की महत्ता को नकारा नहीं है। यहां श्री अरविंद ने अपने योग को पूर्ण अद्वैत कहा है। अरविंद के पूर्ण अद्वैत योग कहने के दो आधार हैं एक तो यह है कि उनके दर्शन में योग के सभी रूपों का समन्वय है तथा दूसरा आधार यह है कि उनकी योग विधि में कई ऐसे अनुशासन भी समाविष्ट हैं जिनकी ओर अन्य योग दर्शनों ने ध्यान नहीं दिया है। श्री अरविंद का कहना है कि योग की मूल विशिष्टता यह है कि यह सर्वांगी विकास पर बल देता है, आंशिक विकास पर नहीं। आत्मा के सभी पक्षों का जैसे उसके भौतिक, जैविक, मानसिक आदि सभी अंगों का पूर्ण रूपान्तरण करने की आवश्यकता है। अत: पूर्ण योग वही कहा जा सकता है जो इस तरह के रूपांतरण पर जोर दे।
विवेकानंद का राजयोग
विवेकानंद ने ज्ञान योग, भक्ति योग, कर्म योग और राज योग का अलग-अलग वर्णन किया है। यह चारों योग का लक्ष्य तो एक ही है अमरता की प्राप्ति करना लेकिन उनकी पद्धति अलग- अलग है। विवेकानंद ने व्यक्ति के मन और अभिरूचि  के अनुसार इन चारों योग मार्गों का वर्णन का किया है ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार योग का चुनाव कर अमरत्व को प्राप्त कर सके। साथ ही वे कहते हैं यह मार्ग तो अलग-अलग अवश्य हैं लेकिन इन्हें कभी भी एक दूसरे पृथक नहीं समझना चाहिए बल्कि ये एक दूसरे से सम्बद्ध हैं।
विवेकानंद के राज योग में मन तथा शरीर के पूर्ण नियंत्रण की बात की जाती है। इसमें मन तथा शरीर पर नियंत्रण करने के लिए कुछ विशेष  विधियां अनुशंसित हैं। राज योग के समर्थकों का मानना है कि यह मोक्ष प्राप्ति का सबसे सहज और तेजी से फल देने वाला मार्ग है। इसलिए इसे योगों का राजा कहा गया है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि सभी भारतीय दर्शनों ने योग की विविध व्याख्या प्रस्तुत की है। कहीं भक्ति योग का महत्व दिया गया है तो कहीं ज्ञानयोग को प्रधानता दी गई है। किसी दर्शन ने ज्ञानयोग को स्वीकारा है तो किसी ने राजयोग की प्रमुखता पर प्रकाश डाला है। साथ ही यहां गीता का दर्शन भी मौजूद है जिसने ज्ञान, भक्ति और कर्म का समन्वय कर सहिष्णुता का परिचय दिया है।

शनिवार, 25 अगस्त 2012

सियासत की बिसात पर मौत का खेल

सियासत की बिसात पर मौत का खेल   
सियासत और इश्क के खेल में सब कुछ जायज माना जाता है। हाल ही में मीडिया की सुखिर्यां बनी फिजा और गीतिका के मामले में भी ऐसा ही कुछ दिखाई पड़ता है। गीतिका ने अपनी कम्पनी के मालिक और हरियाणा के पूर्व मंत्री से तंग आकर आत्महत्या कर ली और फिजा का सड़ा-गला मृत शरीर उसके महलनुमा घर में पाया गया। कभी अपनी खबसूरती के लिए जानी जाने वाली फिजा का अंत बहुत दुखद रहा। हमेशा लोगों की भीड़ को अपनी ओर खींचने वाली फिजा मरते समय बिल्कुल अकेली थी।

गीतिका शर्मा की स्यूसाइड की खबर आने से पहले शायद ही कोई उसे जानता हो। 23 साल की गीतिका बहुत ही कम वक्त में तरक्की की उन सीढ़ियों को पार कर गई जो बहुतों को मेहनत करने पर भी नसीब नहीं होती है। लेकिन, तरक्की और दौलत की इस चकाचौंध के पीछे के काले स्याह चेहरे को वह न जान सकी जिसने उसे मरने पर मजबूर कर दिया। गोपाल कांडा की कम्पनी एमडीएलआर में काम के दौरान कांडा और गीतिका नजदीक आए। गीतिका ने इस नजदीकी को शादी तक में बदलने की सोच ली। शायद यहीं वह गलती कर बैठी। हालांकि, कांडा को भी शादी से परहेज नहीं था। कांडा के बढ़तेgLr{ksi से गीतिका घिरती चली गई और एक दिन उसने खुद को खत्म कर लिया। ऐसा ही कुछ फिजा के साथ भी हुआ। पेशे से वकील रही फिजा उर्फ अनुराधा बाली तेज कदमों से सफलता की ओर बढ़ीं और हरियाणा की एस्सिटैंट एडवोकेट जनरल बन गईं। अपने ही राज्य के उपमुख्यमंत्री चन्द्रमोहन से प्यार किया और दुनिया के सामने अपनी मोहब्बत को कुबूल कर शादी भी की। इस शादी में चन्द्रमोहन चांद और अनुराधा फिजा बनीं। दो बच्चों के पिता चन्द्रमोहन राजनीति में ऊंची हैसियत रखते थेउन्हें फिजा का साथ ज्यादा समय तक नहीं भाया और वह फिजा से दूर हो गए। अपने चांद से यह दूरी वह सह न सकी। अकेली फिजा तन्हा रह गई और एक दिन उसके मरने की खबर आई।

राजनीति के गलियारों में केवल गीतिका और फिजा ही वह नाम नहीं हैं जो सियासत में ऊंचे रसूख वालों के साथ रहीं और वक्त के साथ मुश्किल पैदा करने पर ftUgsa मौत की नींद सुला दिया गया। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब भंवरी देवी की चर्चा चारों ओर हो रही थी। उसने भी मंत्रियों को ब्लैकमेल कर आग में हाथ डालने का काम किया तो वह मौत की नींद सो गई। इसी तरह कवियत्री मधुमिता अपनी कविता के लिए कम और अमरमणि से अपने संबंधों के लिए ज्यादा जानी जाती थी। उसने भी जब अमरमणि के बच्चे की मां बनना चाहा तो उसे भी इस दुनिया से अलविदा कर दिया गया।

ये सभी मामले दिखने में तो सीधे लगते हैं, लेकिन गौर करें तो यह गिव एंड टेक का मामला लगता है। बड़े ओहदे वाले राजनेता इन बालाओं की झोली को दौलत और शोहरत से भर देते हैं, लेकिन बदले में लेते हैं उनकी आबरू। लेकिन, यह एक तरफा मामला नहीं है|ये महिलाएं भी इस तरह के रिश्तों को अपनी मर्जी से बनाती हैं और उनकी शोहरत और ताकत का इस्तेमाल करती हैं। यह सब कुछ चुपचाप चलता रहता है, लेकिन मुश्किल तब पैदा होती है जब वह जरूरत से ज्यादा की उम्मीद करतीं हैं। कोई इस समाज के सामने खुद को स्वीकार करने की मांग करती हैं तो कोई उसके बच्चे की मां बनकर अधिकार पाना चाहती है। उनकी यही इच्छा उन्हें मौत की ओर ले जाती है और वह कई राज अपने तक समेटे हुए हमेशा के लिए सो जाती हैं।   

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

प्रदुषण और बढती कारे



माँ की भूमिका

माँ की भूमिका तो सैदव ही महत्वपूर्ण रही है परन्तु अंधाधुध विकास एवं ग्लोबलाईजेसन की प्रकिया के बाद समाज का ढांचाबदला है.उसके बाद परिवारों का बिखरना,परिवेश में परिवर्तन व्  मनुष्य   के आत्मकेन्द्रित होने से मानव के जीवन में माँ कीभूमिका निःसंदेह पहले से बढ़ी है.आज से कुछ समय पहले जब समाज में संयुक्त परिवार वर्तमान की अपेक्षा अधिक होते थेतथा मनुष्य वर्तमान की भांति स्वकेंद्रित नहीं था तब एक बच्चे के चारो तरफ अनेको रिश्ते होते थे.उसे ममता, स्नेह और दुलार न केवल माँ से ही नहीं बल्कि अन्य रिश्तो जैसे बुआ,नानी,चाची,दादी,मामी से भी मिलता था.परंतु आज जब संयुक्तपरिवार टूटे रहे है तो माँ की भूमिका और उसके कर्तव्य भी पहले से अधिक बढ़ गए है क्यूकि परिवार की अकेली संतान केलिए कभी वह मित्र, कभी बुआ,कभी चाची और कभी दादी बनकर लोरिया एवं  कहानिया सुनाती थी.परन्तु जब बच्चा अपनीदादी और नानी के बुजुर्ग हाथो से प्यार, दुलार नहीं पाता तो उसे ये सब कुछ माँ से ही मिलता है.इसलिए माँ की भूमिका निःसंदेहमहत्वपूर्ण हो गई है.आज के परिवेश में यदि माँ का सहयोगात्मक रवैया न हो तो बच्चे का सम्पूर्ण विकास मुश्किल है.यही नहींकिशोरअवस्था में उसके बढते कदमो के साथ उसकी निगरानी भी केवल माँ ही कर सकती है

रविवार, 5 सितंबर 2010

आज की युवा पीढ़ी से देश को कितनी आशाए ?

जनसंख्या के उस भाग को जो लगभग दस से चौबीस बरस के बीच है युवा की संज्ञा दी जाती है.हमारे देश की जनसंख्या का तकरीबन तीस फीसदी हिस्सा युवा है.भारत के लिए यह एक सकरात्मक पक्ष है,क्यूकि  जहा जापान, फ़्रांस और आस्ट्रेलिया जैसे देश अपनी बुजुर्ग होती आबादी से परेशान है वही भारत अपनी युवा आबादी के बल बूते उनसे अनेक मामलो में बढत ले सकता है.
                              

                   युवा देश की सम्पूर्ण जनसंख्या का महत्वपूर्ण अंग है.देश की आर्थिक,सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितिया इनसे प्रभावित होती है. ये युवा ही है जो देश की अर्थव्यवस्था को आगे ले जा सकती है.युवा के रूप हमारे देश के पास एक ऐसा संसाधन है जिसके उचित प्रयोग से अर्थव्यवस्था में क्रान्तिकारी बदलाव किए जा सकते है.
                              
       युवा न केवल देश की अर्थव्यवस्था को बल्कि सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों  को भी प्रभावित करता है. आज देश का युवा अपने प्रयासों द्वारा अनेक सामाजिक समस्याओ को समाप्त कर सकता है.सुशिक्षित एवं स्वस्थ युवा देश की जड़ो में बैठी समस्याओ को आसानी से ख़त्म कर देगा. जाति प्रथा, दहेज जैसे
बुराइया उनके प्रयास के बिना समाप्त नहीं हो सकती है. साथ ही राजनीति में उनकी सहभागिता न केवल देश की राजनीतिक
व्यवस्था को सुदृढ़ करेगी बल्कि नए कीर्तिमान भी बनाएगी.
                              
        इसके अलावा युवा पीढ़ी की कुछ समस्याए भी जो विकास की मुख्य धारा से कटे होने के कारण उपजी है जैसे नक्सलवाद ,आतंकवाद इत्यादि.इसलिए समाज एवं सरकार का कर्तव्य है की वह युवाओ का  सही मार्गदर्शन करे. सही मार्गदर्शन कर उन्हें शिक्षा का पर्याप्त अवसर एवं व्यक्तिगत विकास के लिए सुविधाए मुहैया कराए.क्यूकि देश की आशाए इन्ही पर टिकी है. यदि युवा सही राह पर चलेगे तो देश की उन्नति और प्रगति की राहे आसान होगी

रविवार, 29 अगस्त 2010

विकास और असंतोष

 पिछले दिनों दिल्ली में किसानो ने अपनी जमीनों के अधिग्रहण को लेकर प्रदर्शन किया यह खबर पूरे मीडिया में छाई हुई थी .किसान अपनी जमीन पर आपने अधिकार खोने से नाराज है दिल्ली में हुई किसान रैली इसका उदाहरण  है .........
                   देश में विकास के नाम पर बन रही सड़के ,बहुमंजिली इमारतो और सेज इत्यादि जैसे बड़ी परियोजनाओ के दौरान किसानो की जमीने बड़े पैमाने पर अधिग्रहित की जाती है .इस अधिग्रहण से विकास की राह तो आसान हो जाती है या यूँ कहे कि हमारे चमचमाते इंडिया कि तस्वीर बनी रहती है लेकिन उन गरीब किसानो का क्या जिनकी जमीने कम दामो पर खरीद ली जाती है .वे जमीने जो उनके जीने का आधार होती है या यूँ कहे कि उनका अस्तित्व  ही उन जमीनों पर निर्भर रहता है .उनके पास कही दूर दराज के गाँवो में जाकर बसने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं बचता .
                                                  विस्थापित गरीब किसान के पास से यदि मिले हुए पैसे खर्च हो जाए तो उसके पास मजदूरी के अलावा कोई उपाय नहीं बचता .इस स्थिति में वह अपने परिवार सहित सडक पर आ जाता है .              
                                                           इसके अतिरिक्त देश में जिस तरह खाद्य संकट कि समस्या आ खड़ी हुई है इस प्रकार के भूमि अधिग्रहण से वह और भी विकट रूप धारण करेगी .बढती ज्संख्या और अन्न उत्पादन हेतु भूमि का अभाव देश को भुखमरी के कगार पर ला कर खड़ा कर देगा .इसलिए यह लड़ाई न केवल किसानो कि है बल्कि खाद्य  सुरक्षा एवं पर्यावरण कि रक्षा का अभियान है .
                                   ये समस्या न केवल किसानो की है बल्कि आदिवासी भी इस समस्या से ग्रसित है .आदिवासी बहुल इलाको में आदिवासियों की जमीनों को सस्ते दामो पर हथिया कर उन्हें जंगलो के अंदर जाने पर मजबूर किया जाता है जिससे न केवल आदिवासी की समस्या बढती है बल्कि देश में पर्यावरण को भी क्षति पहुचती है .

बुधवार, 25 अगस्त 2010

सावन की बहार और तीज का त्यौहार

'रिमझिम रिमझिम बरसे बदरी 'रेडियो पर इस गीत को सुनकर और खिड़की से बाहर की रिमझिम फुहारों को देख सावन के आने का अहसास होता है ......
                              सावन ज्येष्ठ की तपती गर्मी और आषाढ़ की उमस के बाद हल्की ठंडी बयार लेकर आता है जो सभी के लिए सुखद अहसास होता है .सावन की ठंडक न केवल तन को राहत देती है बल्कि मन को भी शांत करती है ....सावन के आते ही जब मौसम खुशनुमा होता है तो हमारे जीवन में अनेक तीज त्यौहार भी आते है जिनमे स्त्री और पुरुष दोनों भाग लेते है .....
                   सावन का महीना महिलाओ के लिए खास होता है क्यूकि इस महीने विवाहित महिलाये आपने मायके आती है .......मायके आकर वह तरह तरह के उत्सवो में भाग लेती है ......उत्तर भारत में सावन के महीने में तीज ,नागपंचमी एवं सावन के सोमवार जैसे उत्सव उत्साह पूर्वक मनाये जाते है 
                               तीज का त्यौहार महिलाओ के  लिए खास होता है .इसका न केवल जलवायाविक महत्व  होता है बल्कि यह धार्मिक एवं सामाजिक दृष्टी से भी विशेष महत्व रखता है .तीज का पर्व भगवान  शिव पार्वती के श्रद्धा के प्रति समर्पित है .यह पर्व पत्नियों द्वारा पतियों के प्रति बलिदान को प्रदर्शित करता है .
                    पूरे देश में तीज का त्यौहार मनाया जाता है .हरियाली तीज ,कजरारी तीज एवं हरितालिका तीज तीन रूपों में मनाई जाती है .सावन के शुक्ल पक्ष में हरियाली तीज मनाई जाती है .इस अवसर पर चाँद की पूजा दूध, दही और फूलो से की जाती है 
             इसके अतिरिक्त कजरारी तीज सावन के कृष्ण पक्ष की तृतीया को यह त्यौहार मनाया जाता है .इस अवसर पर महिलाये नीम की पूजा कर नाचती एवं गाती है .हरितालिका तीज भादो में प्रथम पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है .इस अवसर पर महिलाये 'निर्जला व्रत 'रखती है .यह व्रत महिलाये आपने पति की दीर्घायु के लिए रखती है .यह व्रत न केवल विवाहित महिलाये बल्कि अविवाहित महिलाये भी रखती है .इस अवसर पर उनके ससुराल से तरह तरह के तोहफे आते है ....जिनका वो आनंद उठाती है .......