मिट्टी भरा तसला सिर पर
लिए खड़ी है वह
भाव विहीन चेहरा..........
गहरी आंखे जिनमे न जाने
क्या छिपा रही है.............
उसने, जो सृष्टी को
रचने वाली है ,पत्थर
के घर बनाने कि ठानी है,
उसका अंश जो धूल धूसरित
है ,उसे आँखों से ओझल
कैसे करे ,उसे और अपने
को एक डोर से बाँधने
के लिए ही तो उठा रही है
यह बोझ ..............
8 टिप्पणियां:
बहुत बढ़िया कविता ..मेहनत और आशा की झलक है इसमें
आपकी रचना कहीं ना कहीं बहुत भीतर तक छू गयी ।
WAH...........BEHTEEN PRASTUTI
Bahut khub...tarif ko shabd nahi..aap bahut achchha likhtin hain...badhai
लिखने के लिये बहुत कुछ है ।परन्तु छाया चित्र ने अनेक के सामने प्रश्न खडे किये है देश के नेता इस सत्य से अनजान है कार्य करते रहें
bahut achhe.
बहुत खूब, लाजबाब !
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