सुबह खिड़की से देखा धुंधला सफेद सा
मन ने सोचा सपना है ......
अरे नहीं यह तो कोहरा है
धुंध सा कोहरा जिसमे
बना लो चाहे जितनी शक्ले
जो भी रूप दे लो उन्हें...........
कोहरे के बीच खड़े खुद को
बिल्कुल अकेला पाया
दूर दूर तक कोई नहीं.......
जैसे इस दुनिया में केवल
मै हु, मै ही मै हू......
कोहरे ने दूरिया बढ़ा दी
कही कुछ नहीं दिखाई देता
उड़ाने देर से हो रही है
रेलों को मंजिल तक
पहुंचने में मुश्किल है
सड़के सुनसान है यही
तो कोहरे की माया है........
4 टिप्पणियां:
कोहरे ने सबको अपने माया जाल में लपेट रखा है.
kohare ko jate der nahi lagata.roshani dikhne lagegi
khore ke chaane aisa lagta hai jaise duniya choti hogyi
अच्छी कविता है , दुष्यंत कुमार की लाइन याद आ गई -
"मत कहो आकाश में कुहरा घना है .यह किसी की वक्तिगत आलोचना है "
अगर कुहरा है तो एक दिन धुप भी होगी और सब कुछ साफ़ नज़र आएगा
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